बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 31)

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नहाकर, रोटी पका-खाकर, शाम के लिए रखकर, बिल्लेसुर बकरियों को लेकर निकले। 

कन्धे में वही लग्गा पड़ा हुआ। जामुन पक रही थी। एक डाल में लग्गा लगाकर हिलाया।

 लग्गे के एक तरफ़ हँसिया, दूसरी तरफ़ लगुसी बँधी थी। फरेंदे गिराकर बिनकर अँगोछे में ले लिये और ख़ाते हुए गलियारे से चले।

 आगे महावीर जी वाला मन्दिर मिला।

 चढ़ गये और चबूतरे के ऊपर से मुँह की गुठली नीचे फेंककर महावीर जी के पैर छुर और रोज़ की तरह कहा, मेरी बकरियों की रखवाली किये रहना। 

तुलसीदास जी या सीताजी की जैसी अन्तर्दृष्टि न थी; होती, तो देखते, मूर्ति मुस्कराई।

 जल्दी-जल्दी पैर छूकर और कहकर मन्दिर के चबूतरे से नीचे उतरे। बकरियों को लेकर गलियारे से होते हुए बाग़ की ओर चले।

 दुपहर हो रही थी। पानी का गहरा दौंगरा गिर चुका था। 

ज़मीन गीली हो गई थी। ताल-तलैयाँ, गड़ही-गढ़े बहुत-कुछ भर चुके थे। 

कपास, धान, अगमन ज्वार-बाजरे, अरहर, सनई, सन, लोबिया, ककड़ी-खीरे, मक्की, उर्द आदि बोने के लोभी किसान तेज़ी से हल चला रहे थे। 

किसानी के तन्त्र के जानकार बिल्लेसुर पहली वर्षा की मटैली सुगन्ध से मस्त होते हुए मौलिक किसानी करने की सोचते अपनी इसी धुन में बकरियों को लिये चले जा रहे थे। 

उन बँटाई उठाये खेतों में एक खेत ख़ूद-काश्त के लिए ले लिया था। बरसातवाली किसानी में मिहनत ज़्यादा नहीं पड़ती।

 एक बाह दो बाह करके बीज डाल दिया जाता है। वर्षा के पानी से खेती फूलती-फलती है।

 बैल नहीं है, अगमन जोतने-बोने क लिए कोई माँगे न देगा। बिल्लेसुर ने निश्चय किया कि छः सात दिन में अपने काम भर को ज़मीन वे फावड़े से गोड़ डालेंगे।

 गाँव के लोग और सब खेती करत है, शकरकन्द नहीं लगाते। इसमें काफ़ी फ़ायदा होगा। 


फिर अगहन में उसी खेत में मटर वो देंगे। जब शकरकन्द बैठेगी, रात को ताकना होगा, तब किसा को कुछ देकर रात को तका लेंगे। 

एक अच्छी रक़म हाथ लग जायगी।

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